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कविता

खेल

विनय मिश्र


रात, शाम से लगी हुई है
काँटा बोने में।

हमला दिन पर मोटामोटी
एक जवाबी है
पढ़कर देखो तो यह सारा
खेल किताबी है
रस मिलता है जिसको
चुभती बात पिरोने में।

भले समय पर मिले न पैसा
हमें किराए का
अपने चलते काम न बिगड़े
किसी पराए का
ऐसा मन भी आया कैसे
जादू टोने में।

जब से नेकी की बस्ती में
आकर बसा फरेब
चला उस्तरा पलक झपकते
साफ कर गया जेब
बड़ा मजा है अब गुस्से में
आपा खोने में।


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